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द्रु॒प॒दादि॑व मुमुचा॒नः स्वि॒न्नः स्ना॒तो मला॑दिव। पू॒तं प॒वित्रे॑णे॒वाज्य॒मापः॑ शुन्धन्तु॒ मैन॑सः ॥२० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्रु॒प॒दादि॒वेति॑ द्रुप॒दात्ऽइ॑व। मु॒मु॒चा॒नः। स्वि॒न्नः। स्ना॒तः। मला॑दि॒वेति॒ मला॑त्ऽइव। पू॒तम्। प॒वित्रे॑णे॒वेति॑ प॒वित्रे॑णऽइव। आज्य॑म्। आपः॑। शु॒न्ध॒न्तु॒। मा॒। एन॑सः ॥२० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आपः) प्राण वा जलों के समान निर्मल विद्वान् लोगो ! आप (द्रुपदादिव, मुमचानः) वृक्ष से जैसे फल, रस, पुष्प, पत्ता आदि अलग होते वा जैसे (स्विन्नः) स्वेदयुक्त मनुष्य (स्नातः) स्नान करके (मलादिव) मल से छूटता है, वैसे वा (पवित्रेणेव) जैसे पवित्र करनेवाले पदार्थ से (पूतम्) शुद्ध (आज्यम्) घृत होता है, वैसे (मा) मुझ को (एनसः) अपराध से पृथक् करके (शुन्धन्तु) शुद्ध करें ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। अध्यापक उपदेशक लोगों को योग्य है कि इस प्रकार सब को अच्छी शिक्षा से युक्त करें, जिससे वे शुद्ध आत्मा, नीरोग शरीर और धर्मयुक्त कर्म करनेवाले हों ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(द्रुपदादिव) वृक्षात् फलादिवत् (मुमुचानः) पृथग्भूतः (स्विन्नः) स्वेदयुक्तः (स्नातः) कृतस्नानः (मलादिव) यथा मलिनतायाः (पूतम्) (पवित्रेणेव) यथा शुद्धिकरेण (आज्यम्) घृतम् (आपः) प्राणा जलानीव विद्वांसः (शुन्धन्तु) पवित्रयन्तु (मा) माम् (एनसः) दुष्टाचारात् ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे आपो भवन्तः ! द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव पवित्रेणेव पूतमाज्यं भवति, मैनसः शुन्धन्तु ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। अध्यापकोपदेशकैरित्थं सर्वे सुशिक्षिताः कार्य्याः, येन ते पवित्रात्मारोगशरीर-धर्मयुक्तकर्माणः स्युः ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. (प्राण व जलाप्रमाणे निर्मळ) अध्यापक व उपदेशक यांनी अशा प्रकारे सर्वांना सुशिक्षित करावे की, ज्यामुळे त्यांचे आत्मे शुद्ध, शरीर निरोगी व कर्म धर्मयुक्त बनावे.